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विवेक और उदारता

कहानी प्रस्तुत है आप सभी के सामने जो आपके जीवन को उज्ज्वल बनाने के साथ साथ आपको सही मार्ग भी दिखाती है।और ये कहानी उस लेखनी से उकेरी गई है जिसका जीवन आप सभी आर्दश मानते हैं।

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विवेक और उदारता

एक थी सत्संस्कारों में पली हुई बेटी । नाम था विनीता नाम के ही अनुकूल बड़ों की विनय एवं सेवा को सौभाग्य मानती थी। प्रमाद-रहित एवं चुस्त चर्या अपने अध्ययन के साथ ही परोपकार में दत्तचित्त । सहज ही सर्व की प्रिय


दैवयोग से उसका विवाह धनी, किन्तु कंजूस परिवार में हो गया। जहाँ न पात्रदान न करुणादान ।।


एक दिन एक अशक्त, भूखा और असहाय वृद्ध, द्वार पर आया तो । बहू ने देखा और वासी सूखी रोटी दे दी।


वृद्ध ने कहा:- “बेटी यह तो मुझसे नहीं खाई जाएगी"।

" बहू - " बाबा! इस घर में वासी ही खाया जाता है ।। ' बहू की विनय, सेवा एवं कर्तव्यनिष्ठा से प्रसन्न रहने वाले वहीं खड़े हुए उसके श्वसुर बोले- "बेटी ! ऐसा क्यों कहती हो ?


"बहू-" पिताजी इस घर में मैंने यही देखा है, कि पूर्व पुण्य प्राप्त सम्पदा को भोगो और जोड़ो। दान, पुण्य, धर्म आदि तो देखा ही नहीं ।

श्वसुर को अपनी भूल समझ में आयी। फिर तो बहू ने भी उस भूखे वृद्ध को अच्छा भोजन कराया और धर्ममार्ग में लगने की प्रेरणा की तथा उसका परिचय प्राप्त कर सच्चरित्र जान घर के समीप ही एक कोठरी रहने को दे दी।


वृद्ध भी कृतज्ञ-भाव से यथाशक्ति घर के कार्यों में सहयोग

करने लगा। घर के छोटे बच्चों को तो वह बहुत प्यार से खिलाता।

उनसे वो अच्छी बातें करता, बड़े बच्चों से तो वह अच्छी पुस्तकें

पढ़वाता और प्रसन्न रहता । 

बहू की सद्बुद्धि से मिल गया, परिवार को एक विश्वसनीय सेवक।

एक दिन बुखार आया और अल्प – समय में वह भगवान का स्मरण करता हुआ और देह से भिन्न आत्मा का चिन्तन करता हुआ, सभी से क्षमाभाव - पूर्वक शान्त परिणामों से देह छोड़ कर, सद्गति को प्राप्त हुआ।


‘जैसे नाप से छोटा जूता तो मात्र पैर में ही कष्ट देता है

परन्तु नाप से बड़ा जूता तो स्वयं को गिराकर पूरे शरीर को कष्ट देता है, तथैव धन की कमी से तो व्यक्ति मात्र परेशान ही होता है, परन्तु धन की अतिवृद्धि व्यक्ति को अहंकारी, विलासी, क्रूर आदि बनाकर पतन के गर्त में गिरा देती है।'


लेखक:–

आदरणीय बाल ब्रह्मचारी रविन्द्र जी "आत्मन"


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