जयपुर डायरी - Jaipur Diary |
अगर जयपुर डायरी के पहले पन्नों से दीदार नहीं हुआ हो, तो अभी कर लें...😊
जयपुर डायरी की तीसरी किस्त अब आपके हांथो में है।और हमें उम्मीद है, जिसकी कुछ बातें आपको भी खास होंगी।
हमारी ट्रेन उस पटरी पर दौड़ रही थी,जो अच्छी तो थी लेकिन इतनी अच्छी नहीं कि मजे से enjoy कर सके।
पर मैं मस्तमौला दुनिया क्या कहेगी ये तो करने के बाद ही सोचता,जो दिल कहता उसे पहले पूरी सिद्धत से करता, ताकि बाद में खुद में ही ये सवाल खड़ा ना हो जाए कि काश ऐसा कर सकता।
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खैर ये बातें आपको बस सुनने में अच्छी लग रही होंगी, हकीकत सब जायिज कर देती है।
मोती पार्क मतलब M.P. जिसे अक्सर विद्यार्थी गेट पर एंट्री करते समय शॉर्टकट में निपटा देते थे ताकि अपना बेहद मूल्यवान समय खुद पर खर्च कर सके।
मैंने भी जब पहली दफा देखा तो मुझे अपना वाला M.P. याद आ गया। खैर, PHD थोड़े ही करनी थी, सपाटे से पैन उठाकर हमने भी भेड़ चाल अपनाई और निकल आए खुली हवा में जिसे महसूस करना अपना ही कुछ अलग अंदाज था।
वैसे मैं आपको पहले ही बता चुका हूं, अंग्रेजी हमारी खोपडिया में कहीं भी एडजस्ट नहीं हो रही थी, वहां जाते ही खोपड़ियां दो चार मिनट में बाहर फेंक देती थी।
अगर इसकी आदत पहले से होती तो जल्दी झेल भी लेता, पर हम ठहरे रट्टू तोता। जो Sir ने उपकार करके टिक लगाए दिये, उन्हें तो हम ऐसा घोलकर पी जाते थे, कि आप question का पहला शब्द ही बोल दो, तो हम खटाखट ऐसा उत्तर चेंप देंगे कि तुम भी हमें अंग्रेजों का बाप समझ बैठते और अगर गलती से बीच में एक आध शब्द ईहां के उहां हो गया फिर तो हम ऐसी चुप्पी साधते थे, Sir जी भले ही आधी लाइन हिंट में बोल दे, तो भी हम एक शब्द भी नहीं बोलते थे।
क्योंकि भाईसाहब यह हमारी शान के खिलाफ था, क्यों बेवजह अंग्रेजी को तोड़ मरोड़ कर बोल कर उसका अपमान करें या व्यर्थ में ही अपना अपमान करवाएं। हमे दोनों स्वीकार नहीं थे। खैर,
जैसा था सब बढ़िया चल रहा था, लेकिन एक काम करना शुरू कर दिया था, जो भी मिलता उससे सलाह मशवरा जरूर ले लेता, ताकि अपने भी कुछ काम आ सके।
बस ऐसे ही आज M.P. की सैर करते हुए मयंक जी! बंडा वाले। तो बस उन्हीं से हमारी मुलाकात हुई, जो 3 वर्षों तक तो हमारे साथ सिद्धायतन में पढ़ चुके थे, हमारे साथ मतलब हम उनके साथ और जब ईहां आकर मिले जो वैसे ही थे जैसे पहले थे, कोई भी चेंज नहीं आया था।
और बातचीत तो ऐसे करते थे जैसे बड़े भ्राता हो। अब बड़े भ्राता से क्या छुपाना जो दिल में था मैने बोल दिया और जो उनका फर्ज था, वो भी नजर आया।
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"और बताओ... कोई दिक्कत मिक्कत तो नहीं है, जो भी काम हो बोल दिया करो.. ठीक है।"
"ये ठीक है" भाई साहब का किसी भी बात पर वजन देने का बेजोड़ हथियार था, जो अक्सर इनकी मीठी जुबान से सुनने को मिल ही जाता था।
"हां भाईसाहब सब बढ़िया है।" मैने अनमने से मन से कहा।
"पढ़ाई कैसी चल रही है?" मयंक जी ने फिर एक प्रश्न दाग दिया।
"पढ़ाई... पढ़ाई भी ठीक चल रही है बस थोड़ी इंग्लिश में दिक्कत आती है और तो सब बढ़िया है"
फिर लवजों ने कुछ समय के लिये मौन ले लिया।
मयंक जी! आपने कैसे सीखी इंग्लिश हमें तो कुछ झप ही नहीं रहा है, मैंने ही बात बढ़ाते हुए मयंक जी से पूछा।
इंग्लिश.... क्या अभिषेक भई! तुम भी इतनी सी बात पर परेशान हो। कुछ दम नहीं है इंग्लिश में, बहुत सरल है और हमें कहां आती थी, हमने भी तो यहीं सीखी है, अब बस इतनी आ जाती है कि कहीं दिक्कत नहीं आएगी।
काम चलाऊ।
"हम्म"
और हां एक बात ध्यान रखना दीदी की क्लास कभी मत छोड़ना, भले ही संस्कृत की क्लास छोड़ देना और वो भी नहीं छोड़ना हमने तो ऐसे ही कहा है, पर प्रतीति दीदी की क्लास कभी मत छोड़ना।
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गारंटी दे रहें है 2 साल में ऐसी इंग्लिश सीख जाओगे जैसे बचपन से ही इंग्लिश मीडियम में पढ़ रहे हो।
"ठीक है।" मयंक जी ने फिर बात को सीधे जेहने में उतारने की सोची।
"वह तो है।" मैने कहा।
दीदी! थी तो हमारी मुंहबोली, पर दीदी वाली फीलिंग ऐसी की कोई अगर दीदी की तारीफ के कुछ शब्द हमारे मुंह से सुन ले तो बंदा ये सोचेगा।
"अच्छा। तो प्रतीति दीदी इनकी बहिन हैं। खैर, कुछ भी हो हमें एक बहुत बढ़िया टीचर मिल गया था, जिसकी तारीफ अक्सर विद्यार्थी करते मिल जाते। और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनकी जुवान पर 17 लोगों का हाथ होता है, उनका तो कहना ही क्या।
मयंक जी ने बात पसारते हुए कहा।
और एक बात पता है? दीदी शक्ल देख कर पढ़ाती हैं।
शक्ल देखकर, मतलब मैने चौंकते हुए कहा।
अच्छा मान लो, तुम्हें कम इंग्लिश आती है, तो तुम्हें वैसे ही पढ़ाएंगी जैसी तुम्हें जरूरत है ।
और सबसे बड़ी बात दीदी कभी भेदभाव नहीं करतीं और जो क्लास में ज्यादा ही पुच्च पुच्च करता है, या ज्यादा अंग्रेजी झाडता है ना, उसको भी दीदी इंग्लिश में झाड़ देती है।
हा हा हा..मैनें दांत निपोर दिए।
और भी मयंक जी से गुरु ज्ञान की बातें हुई जिससे अंग्रेजी पड़ने की ललक पैदा हो गई, अक्सर यही होता है जहां जैसा माहौल हो वहां वही मिलता है, नहीं तो कुछ ऐसे भी होते है जो कहते हैं,
"अंग्रेजी पढ़के, अंग्रेज बनोगे का?"
"अंग्रेज मर गए अंग्रेजी छोड़ गए।"
और भी कई सारे टुच्चे पुच्चे कुतर्कों पर टिप्पणियां जिनकी जानकारी हिंदी प्रोफेसर से पास मिल जायेगी, बस अंग्रेजी उनकी प्रथम शत्रु हो,नहीं तो खामखां बदनाम कहते फिरो कि हिंदी वाले अंग्रेजी को आंखों नहीं देखते। खैर,
क्लास में जाना शुरू हो गया था और पढ़ाई भी शुरू हो गई थी और जिसकी शुरुवात Tense से हुई। Tense की पहली क्लास से ही मैंने कसम खा ली थी, कि दीदी की क्लास कभी भी नहीं छोड़ूंगा।
धीरे धीरे खोपड़ियां अंग्रेजी को एडजेस्ट करने लगी, जो कुछ जाता उसमे से कुछ रहता तो कुछ निकल जाता।
पर इस बात की खुशी थी, कि "कुछ नहीं से, तो कुछ सही" वाली उक्ति को साथ ले लिया था, इससे अंग्रेजी का कीड़ा तो नहीं लगा पर अंग्रेजी का डर निकल गया था। लाइब्रेरी का दीवाना भी हुआ, सिर्फ कुछ दिनों के लिए बाद में अखबार वांचने तक ही रुक गया।
हमें उससे इश्क हो गया था और अब धीरे धीरे बड़ता भी जा रहा था, हमने इस इश्क को कम नहीं होने दिया। जहां गया वहां इसी को ढूंढा और मिला भी। और अब इससे बातें भी होने लगी थी, ये हमारा हाल तो जानती थी, बस मैं ही कभी कभी पीछे हट गया। नहीं तो आज इसका मलाल नहीं होता।
ये मोहब्बत हमारी अंग्रेजी से थी, जिसकी हर चाल ढाल तो नहीं कुछ चाल ढाल ही समझ पाया था।
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और अगर इसका श्रेय किसी को जाता है, तो वो है हमारी प्रतीति दीदी। जो एक टीचर के साथ साथ एक अच्छी विदुषी भी है।
"हम हैं तो हमारी सोच है,पर हम रहे या ना रहे, अगर सोच अच्छी है, तो वो हमेशा रहेगी।" यही दीदी के साथ है फिलहाल में वो भी है और उनकी अच्छी सोच भी हमारे साथ है।
जयपुर डायरी
तो मिलते है ऐसे ही किसी नये किस्से के साथ अभी के लिए इति अलम् ......
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